द्वैमातुर कृपासिन्धो! षाष्मातुराग्रज प्रभो।
वरद त्वं वर देहि वांछितं वांत्रिछतार्थद।।
अनेन सफलार्ध्येण फलदांऽस्तु सदामम।।
द्वैमातुर कृपासिन्धो! षाष्मातुराग्रज प्रभो।
वरद त्वं वर देहि वांछितं वांत्रिछतार्थद।।
अनेन सफलार्ध्येण फलदांऽस्तु सदामम।।
इसमें कई वर्तनीगतदोष हैं फिर भी अनुवाद प्रस्तुत है
हे कृपा के सागर द्वैमातुर (गणेश) प्रभो ! हे षाण्मातुर (कार्तिकेय) के बड़े भाई, तुम वर देने वाले हो अतः वर दो, तुम कामनाओं को पूर्ण करने वाले हो अतः वांछित (फल) प्रदान करो ।
इस सफल अर्घ्य के द्वारा सदैव ही मेरे लिये फलदायी हो ।
अर्थात् मेरा ये दिया हुआ अर्घ्य आप तक पहुंचे और आप उत्तम फल प्रदान करें ।